केज कल्चर एक ऐसी तकनीक है, जिसमें एक संलग्न जगह/ केज होता है जो आसपास के जल स्रोत जैसे तालाब झील इत्यादि के साथ पानी के मुक्त आदान-प्रदान को बनाए रखती है जिसमें मछलियों को ऊँगली के आकार से बाजारू आकार में पाला जाता है।
यह केज गोल ओर एवं चकोर आकार में होता है जिसमें ऊँगली के आकार के मछली बीज को डाला जाता है और फिर इस केज को नदी, तालाब, समुद्र इत्यादि में रख दिया जाता है ताकि मछली को बाजार में बेचने योग्य वजन तक ले जाया जा सके।
केज कल्चर की शुरुआत सबसे पहले 1800 में कंबोडिया में हुई थी, जहां मछुआरे क्लैरियस (clarias) प्रजाति की मछलियों को पिंजरे में रखते थे।
भारत में, केज कल्चर का पहली बार 1970 में तीन वातावरणों में प्रयास किया गया था:
(1) दलदली धरती पर केज कल्चर का उपयोग वायु-श्वास मछलियों के साथ किया गया।
(2) इलाहाबाद में यमुना और गंगा नदियों के बहते पानी में इंडियन मेजर कार्प के साथ उपयोग किया गया।
(3) कर्नाटक में खड़े जल तालाब में सामान्य कार्प, सिल्वर कार्प, रोहू और तिलपिया के साथ उपयोग किया गया।
केज कल्चर के निम्नलिखित फायदे हैं:
• झीलों, जलाशयों, तालाबों और नदियों सहित कई प्रकार के जल संसाधनों का उपयोग केज कल्चर के लिए किया जा सकता है।
• केज कल्चर में कम निवेश की आवश्यकता होती है।
• हार्वेस्टिंग सरल है।
• मछली का अवलोकन सरल है।
• कम मजदूरों के साथ काम किया जा सकता है।
• बेरोजगार युवाओं और महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करता है।
केज कल्चर के निम्नलिखित नुकसान हैं:
• फ़ीड को पोषण से पूर्ण और ताजा रखा जाना चाहिए।
• Low Dissolved Oxygen Syndrome (LODOS) एक मौजूदा समस्या है और इसके लिए एरीएशन सिस्टम की आवश्यकता हो सकती है।
• नेट केज को खराब होना।
• रोग के मामले अधिक हो सकते हैं और रोग तेजी से फैल सकते है।
• अप्रयुक्त फ़ीड के संचय से जल प्रदूषण होगा
• पानी की गुणवत्ता के मापदंडों में बदलाव।
• पिंजरों में जलीय जीवों की अधिकता।